आठ मोहर्रम: हज़रत क़ासिम अ.स. की शहादत की याद में नज़्र व नियाज़ का एहतमाम, बिडौली सादात में बरसी अकीदत की रोशनी


लेखक:
शाकिर अली, पत्रकार – "समझो भारत" राष्ट्रीय समाचार पत्रिका

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बिडौली सादात, शामली।
मोहर्रम का महीना ग़म, सब्र, और हुसैनी फिक्र का पैग़ाम लेकर आता है। हर दिन इमाम हुसैन अ.स. और उनके कारवां की कुर्बानियों की एक अलग कहानी बयान करता है। आठ मोहर्रम का दिन हज़रत क़ासिम इब्ने हसन अ.स. की शहादत की याद में अकीदतमंदों के लिए बेहद अहम होता है। बिडौली सादात गांव में इस मौके पर शिया समुदाय के लोगों ने अकीदत और एहतराम के साथ मजलिस का एहतमाम कर कर्बला के जांनिसार जवान हज़रत क़ासिम अ.स. को याद किया।

🔹 हज़रत क़ासिम की शहादत – एक मिसाल सब्र और बहादुरी की

हज़रत क़ासिम अ.स., इमाम हसन अ.स. के बेटे और इमाम हुसैन अ.स. के भतीजे थे। उनकी उम्र बहुत कम थी जब कर्बला का मैदान सजा। लेकिन जिस शिद्दत से उन्होंने हक़ का साथ दिया, वह हर नौजवान के लिए एक मिसाल है। आठ मोहर्रम को उनकी शहादत की याद में आयोजित मजलिस में मौलाना ने उनके बहादुर किरदार और नाना रसूल अल्लाह स.अ. की उम्मत की बेवफाई पर रोशनी डाली।

🔹 नज़्र व नियाज़ – रूहानी रस्म और बरकत का जरिया

मजलिस के बाद गांव में जगह-जगह दस्तरख़ान सजाए गए। हज़रत क़ासिम अ.स. की याद में की गई नज़्र को रोज़ी और बरकत का ज़रिया माना जाता है। अकीदतमंदों ने अपने घरों में एक से बढ़कर एक लज़ीज़ पकवान तैयार किए – शीर, पुलाव, दाल, हलवा, तहरी, कढ़ी-चावल आदि। इन पकवानों को सजाकर अज़ादारों को न्यौता दिया गया और सबने मिलकर नियाज़ खाई।

यह नज़्र सिर्फ एक रस्म नहीं, बल्कि एक रूहानी जुड़ाव है जो कर्बला से जोड़ता है। अकीदतमंद मानते हैं कि हज़रत क़ासिम अ.स. के नाम की नियाज़ से घरों में बरकत आती है और रोज़ी में इज़ाफा होता है।

🔹 गांव में गूंजा अकीदत का पैग़ाम

गांव में अकीदत का माहौल देखते ही बनता था। हर गली में दस्तरखान सजा था, और हर घर मेहमानों के इस्तक़बाल के लिए खुला। लोगों ने न सिर्फ अपने घरों में नजर कराई, बल्कि एक-दूसरे के घरों में जाकर नियाज़ में शिरकत की, जो मोहब्बत और भाईचारे की मिसाल बनी।

🔹 अहम शख्सियतों की शिरकत

इस कार्यक्रम के आयोजन में कई सामाजिक और धार्मिक हस्तियों ने सहयोग किया, जिनमें प्रमुख हैं:

  • सय्यद फराज मेहदी
  • पूर्व प्रधान फजल अली
  • पत्रकार शाकिर अली
  • खुर्रम जैदी
  • क़ासिम शाह

इन तमाम अकीदतमंदों ने मिलकर इस पवित्र आयोजन को सफल बनाया।


✍️ समापन विचार

मोहर्रम की रस्में हमें सिर्फ ग़म और आंसुओं की याद नहीं दिलातीं, बल्कि इंसानियत, हिम्मत, सब्र और सच्चाई के रास्ते पर चलने की प्रेरणा देती हैं। हज़रत क़ासिम अ.स. की कुर्बानी हमें यह सिखाती है कि उम्र मायने नहीं रखती, अगर जज़्बा सच्चा हो। बिडौली सादात में आठ मोहर्रम को हुई यह नज़्र की महफ़िल उसी जज़्बे का जीवंत प्रतीक बनी।

#समझो_भारत की ओर से सलाम है उन तमाम अज़ादारों को, जो कर्बला की याद को अपनी रूह में जिंदा रखते हैं।


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