किसानों के लिए सरदार वल्लभ भाई पटेल की सोच के आधार पर एक एक जयंती समारोह का लेखा जोखा

आज मैं आप लोगों के द्वारा बहुत ही धूम धाम से सरदार जी को याद किया है। करना भी चाहिए लेकिन एक सवाल जो दिल मे आता है क्या आपने कभी सोचा कि नही, यदि नही तो सोचिये की सरदार जी की सोच क्या थी और आज उस सोच का कितना प्रतिशत अमल किया गया है।
सरदार पटेल कहते थे कि "दरिद्र नारायण के दर्शन करने हो तो किसानों के झोपडे में जाओ! किसान डर कर दुख उठाये और जालिम ( अमीर व उद्दोग पतियों) की लातें खाये, इससे मुझे शर्म आती है और मैं सोचता हूँ कि किसानों को गरीब व कमजोर न रहने देकर सीधा खड़ा करूंगा और ऊंचा सर करके चलने वाला बना दूंगा! इतना करके मरूं तो अपने जीवन को सफल मानूंगा।
चूंकि सरदार पटेल जी ग्रामीण एवं किसान परिवार एवं परिवेश से, किसानों के दुखदर्द एवं कठिनाइयों को महसूस करने के साथ राष्ट्रीय क्षितिज़ पर पहुंचे थे, ऐसी स्थिति में किसानों की समस्याओं के निराकरण के प्रति वे गंभीर रहे! किसानों को "नो प्रौफिट नो लास " के सिद्धांत पर कृषि में काम आने वाले खाद -बीज -कीट नाशक दवा प्रदान करने के साथ, किसानों के उत्पादन का मूल्य -बाज़ार के अन्य उत्पादों के क्रम में ही बढाकर निर्धारित करने के साथ सरकार खरीदने की गारंटी भी दे।  लेकिन भारत के समक्ष आसन्न सीमा संकट एवं रियासतों के भारत संघ में विलय के बाद वे इतना व्यस्त रहे और वक्त ने भी उनका साथ नहीं दिया और वे आजादी के बाद मात्र सवा तीन साल में ही अपनी अंतिम यात्रा पर चले गये।
लेकिन उन्होंने हम सबको कुछ संदेश को भी देकर गए है। लेकिन हम लोग उस संदेश को कितना समाज को फैला रहे है आप लोग समझ ही सकते है। आज वर्तमान प्रधानमंत्री ने वर्ष 2014 के चुनाव में किसानों को तमाम सपने व लालीपाप दिखाये गए। राष्ट्रीय स्वामीनाथन किसान आयोग की रिपोर्ट लागू होगी।लेकिन  आयोग की सिफारिश लागू करने एवं सरदार पटेल जी की सोच का भारत निर्माण करने का वादा किया था लेकिन वर्तमान में उस वादे का दंश देश का किसान भुगत रहा है और किसान कर्ज के जाल में फंसकर आत्महत्या करने को विवश है। हम वर्तमान की सरकार के आंकड़े  विगत पांच वर्ष 4 महीने में पहले की सरकार  से ज्यादा किसान अपने कर्ज को अदा न कर पाने के कारण आत्महत्या करने को विवश हुआ है और सरकार किसानों को उनके संकट से मुक्त करने के बजाय, निरंतर संकट बढाने पर आमादा है।
आज हमारे प्रधानमंत्री जी विदेशों में घूमघूम कर कह रहे हैं कि भारत सबसे ज्यादा निवेश करने लायक देश है? है भी क्यों नही जब नही रहेगा किसान तो क्या करेगा समाज ये तो आने वाला समय ही बताएगा। बाकि राष्ट्रवाद का दंभ भरने वाली पार्टी के प्रधानमंत्री ने पहले कृषि के समक्ष गंभीर खतरा उत्पन्न किया है और अब देश के लगभग दस करोड़ दुग्ध उत्पादन में लगे भारतीयों के समक्ष गंभीर खतरा उत्पन्न कर रहे हैं।
 इधर गुपचुप तरीके से हमारा विदेश मंत्रालय एवं प्रधानमंत्री जी, सोलह देशों से उन्मुक्त व्यापार करने के लिए लगे हुए हैं और आस्ट्रेलिया, थाईलैंड आदि देशों से दुग्ध उत्पादन का व्यापारिक करार गुपचुप तरीके से तीब्र स्तर पर है।
  कृषि के साथ, ग्रामीण इलाके में दुग्ध उत्पादन, किसानों की आमदनी का एक पूरक जरिया बना हुआ है। साथ ही साथ तमाम दुग्ध डेरी के जरिए भी लोगों को आय के साथ साथ रोजगार भी हासिल हो रहा है। लेकिन हमारे देश की किसानों के हितों का दंभ दिखाने वाली सरकार 'आरसीईपी 'समझौते के जरिए किसानों /दस करोड़ से ज्यादा दुग्ध उत्पादन में लगे लोगों को बरबाद करने पर आमादा है।
 पहले तो अखबारों के जरिए यह चर्चा चली कि "दो से ज्यादा दुधारू जानवरों को पालने वालों को विद्युत कनेक्शन व्यवसायिक लेना पडेगा ?"यानी वैसे ही देश में बिजली की दरें काफी ज्यादा है, व्यवसायिक कनेक्शन के बाद उन्हें और ज्यादा बिजली बिल का भुगतान करना होगा। तब तक बात समझ में नहीं आती थी लेकिन जब आस्ट्रेलिया, बैंकॉक आदि ने "बिना डेयरी /दुग्ध उत्पादन के निवेश करने /समझौते की हामी नहीं भरी। तो अपने देश की सरकार का, किसानों को दुग्ध उत्पादन से हतोत्साहित करने और डेयरी व्यवसाय को चौपट करने के साथ, देश के दस करोड़ दुग्ध व्यवसाय में लगे लोगों के हितों पर कुठाराघात और विदेशी निवेशकों को आकर्षित करने के साथ टैक्स की दरों में छूट सहित जीएसटी की दरों में भारी कमी का खेल कुछ- कुछ समझ में आने लगा। हमारी सरकार घरेलू दुग्ध उत्पादन में लगे /डेयरी में लगे लोगों को तबाह कर विदेशी कंपनियों को लाना चाहती है। सरकार विदेशी दूध, घी, मक्खन आदि पर इम्पोर्ट ड्यूटी घटाकर /बिल्कुल समाप्त करके, भारत के दुग्ध उत्पादन आदि का बेडा गर्क करने की कोशिश में है। हो सकता है इससे चंद भारतीय पूंजीपतियों की आमदनी में भारी वृद्धि हो जाए, लेकिन दस करोड़ दुग्ध उत्पादन में लगे भारतीयों का क्या होगा।
  सरकार जब कृषि एवं किसानों के हितों की बातें होती है तो मुँह मोड़ लेती है और जब किसानों के सम्पूर्ण कर्ज मुक्ति की बात चलती है तो सरकार समर्थक मीडिया और अर्थशास्त्री बड़ी तेज आवाज़ में चिल्लाने लगते हैं कि किसानों का बार - बार कर्जा माफ नहीं किया जा सकता।


आपको बता दु की एकरिपोर्ट के मुताबिक भारत के एक करोड़ 10 लाख किसान जितना कर्ज लिए है उससे कहि ज्यादा एक
लाख व्यावसायिक उझसे कहि ज्यादा कर्ज लिए हुए है। यह सरकार की रिपोर्ट में हैं कि एक किसान का औसत कर्ज 53000 रुपये है जबकि एक व्यवसायिक के औसत जो है करीब 100 करोड़ रुपये है। तो सरकार किसके  लिए काम कर रही है आप समझ सकते है।
  किसान एवं किसानों के संगठन भी बार -बार कर्जा माफ करने की बातें नहीं करते। बल्कि वे अपने उत्पादन का लाभकारी मूल्य चाहते हैं।
  आजादी के बाद से सभी सरकारे किसानों के फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करती रही हैं और भारत की सत्ता पर काबिज सरकार यह दावा बड़े जोरदार ढंग से करती है कि "मैने तो किसानों को डेढ गुना दाम घोषित कर दिया। लेकिन किसानों के प्रति एकड़ गेहूँ, धान, मक्का, मसूर, तिलहन का दाम नहीं बताती है। जब तक किसानों के प्रत्येक उत्पाद गेहूँ, धान आदि का प्रति एकड़ उत्पादन लागत सरकार, किसानों को नहीं बतायेगी तो कैसे पता चलेगा कि किसानों को गेहूँ, धान, गन्ने आदि का डेढ गुना दाम मिल रहा है और सरकार के किसानों की आय दो गुनी करने की हकीकत का कैसे पता चलेगा?
 पिछले वर्ष सरकार ने धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1750/-प्रति क्विंटल घोषित किया था लेकिन वास्तविकता है किसानों को बमुश्किल 1100-1200/-प्रति क्विंटल से ज्यादा धान का दाम नहीं मिला। ऐसी ही कमोवेश स्थिति गेहूँ की सरकारी खरीद की रही।  सरकारी केन्द्रों पर विगत वर्ष व्यापारियों के ही धान गेहूँ खरीदे गए और विवशता में किसान औने पौने, मंडियों में अपने उत्पाद बेचने को विवश हुआ। वर्तमान वर्ष में भी कागजों में धान के सरकारी क्रय केन्द्र हैं और क्रय केन्द्रों पर जब किसान जाता है तो बोरों का अभाव बताकर लौटा दिया जाता है।
  किसानों के लिए स्वामीनाथन आयोग ने सी-2 के तहत दाम निर्धारित करने की बात कही है। लेकिन इस सरकार ने उसे ठंडे बस्ते में डाल रखा है। किसान वार्षिक 6 हजार रूपये की "किसान सम्मान निधि" के नाम की भीख नहीं बल्कि अपना हक, उपज की लागत, अपने परिवार की मजदूरी, लगे मजदूरों की मजदूरी, खेत की उत्पादन शक्ति के ह्रास के साथ, ट्रेक्टर, पम्पिंग सेट आदि के पुर्जों की खराबी को जोड़कर बढे डीजल, पेट्रोल, बीज आदि को शामिल करने के साथ कम से कम पचास प्रतिशत मुनाफा चाहता है। अगर व्यापारी दो तीन सौ प्रतिशत मुनाफा ले कर अपना माल बेचता है तो किसानों को इतना लाभ तो मिलना ही चाहिए।
  सरकार गन्ना के दाम बढ़ाने पर निरंतर राजनीति करने के साथ बड़ी - बड़ी बातें करती है।  एक सांसद के सवाल के जवाब में, कृषि मंत्री ने एक क्विंटल गन्ने का लागत मूल्य रूपया 290/-बताया। ऐसी स्थिति में सरकार को, अपने दावे के अनुसार न्यूनतम समर्थन मूल्य गन्ने का 435/-घोषित करने के साथ, चीनी मिल निर्धारित मूल्य पर गन्ने को क्रय करने के साथ समय पर भुगतान करे तो किसानों की समस्याओं का निराकरण संभव हो सकता है । क्योंकि एक एकड़ में लगभग 44000=-रुपये और तीन एकड़ अगर किसान गन्ना बोयेगा तो सवा लाख रुपये अतिरिक्त मूल्य पाने पर किसान कर्ज के जाल से निश्चित बाहर हो जाएगा।
  ऐसे ही गेहूँ का उत्पादन लागत प्रति क्विंटल 2900/-है अगर किसानों को डेढ गुना मूल्य मिले तो किसान न तो कर्ज के जाल में फंसेगा और न मजबूरन आत्महत्या करेगा।
 ये वही सरकार है जो आधी- रात को जीएसटी ला सकती है, नोटबंदी कर सकती है लेकिन लंबे अंतराल से किसानों के हितों के लिए लंबित दो विधेयक पर चर्चा नहीं करा सकती और कानून का स्वरूप प्रदान नहीं कर सकती।
  दोष उनका ही नहीं है बल्कि हमारे स्वनाम धन्य किसानों के हितों के संरक्षण के नाम पर चुने गये सांसद, विधायक का भी है जो सदन में मुखर नहीं होते और सड़क पर सशक्त संघर्ष नहीं करते। दोष किसानों का भी है जो जाति धर्म, हिन्दू मुस्लिम, मंदिर मस्जिद की राजनीति के लपेटे में फंसे है।
  हमें वर्गीय हितों के संरक्षण के लिए जागरूकता पैदा करने के साथ मुद्दे पर एकजुटता के साथ संघर्ष खड़ा करने की ज़रुरत है। ताकि किसान तबाह न हो और देश के दुग्ध उत्पादन में लगे लोगों के समक्ष संकट न खड़ा हो।
आज हमारी अपील है कि जो जहाँ है जिस स्तर पर हैं सब किसान के पुत्र/पुत्री है प्रतिदिन दस मिनट का समय अपने किसान माता पिता व पूर्वजो के लिए जरूर दे नही तो आप विलुप्त हो जाएंगे । आज आपको जब अपने हक के लिए लड़ना होता है तो आप सड़क पर संघर्ष करते है तो कम से कम सड़क पर नही तो समाज के लिए कुछ सामाजिक मुद्दो पर लिखकर सरकार को विवश कर की जिस तरह उद्योगपति की बात मानी जाती है तो हम किसान की क्यों नही।
आज नही तो फिट कभी नही आज किसान सबसे ज्यादा खतरे में है तो कल आप भी आ जाएंगे वो दिन दूर नही की दिल्ली अब दूर नही।
*लेखक -प्रभाकर सिंह रिसर्च स्कॉलर इलाहाबाद विश्वविद्यालय।*

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