पर्दे के पीछे की मिस रंगीली – एक मज़ाक, एक सच्चाई और एक सवाल

लेखक: शौकीन सिद्दीकी,

स्थान: शामली, उत्तर प्रदेश
स्रोत: “समझो भारत” राष्ट्रीय समाचार पत्रिका


शामली की राजनीति और मिस रंगीली का मामला: मज़ाक या समाज पर वार?

नगर पालिका परिषद शामली के सभासद माननीय श्री अनिल कुमार उपाध्याय जी द्वारा सोशल मीडिया पर की गई एक टिप्पणी ने शहर में न केवल राजनीतिक हलचल मचा दी, बल्कि व्यंग्य, व्यथा और व्यसन की त्रिकोणीय बहस भी छेड़ दी।

सभासद जी की टिप्पणी विशेष रूप से आउटसोर्सिंग सफाई कर्मचारी श्री शशिकांत जी को संबोधित थी, जिसमें उन्होंने स्पष्ट किया कि जो लेखनी सामने आई है वह शशिकांत की नहीं, बल्कि “रंगीले” की है – एक प्रतीकात्मक नाम जिसे लेकर व्यंग्यात्मक कटाक्ष किया गया।

श्री उपाध्याय जी का संवाद था:

“यह लेखनी है ही नहीं, ये तो रंगीले की लेखनी है, पर्दे के पीछे से ओ सुन रगीले तुझे नगा करके छोड़ेंगे…”

इस कथन से पैदा हुआ विवाद और जवाबी प्रतिक्रियाएं कहीं हास्यात्मक शैली में ढल गईं तो कहीं इससे गंभीर सामाजिक प्रश्न भी उठ खड़े हुए।


रंगीले का जवाब – व्यंग्य में लिपटी पीड़ा

जवाबी प्रतिक्रिया में जो भावनाएं सामने आईं, वो व्यंग्य की चादर ओढ़े हुए थीं लेकिन असल में उसमें व्यसन की भयावह हकीकत छिपी थी:

"श्रीमान जी, नाम नोट करने की आवश्यकता नहीं है, वीर चिराग पालीवाल जानते हैं मैं तो मिस रंगीली पीता हूं... ₹75 में आती है, ₹80 देकर आता हूं… सावन माह में रोक के बावजूद पर्दे के पीछे मिलती है।”

यह शब्द एक ओर जहां हास्य उत्पन्न करते हैं, वहीं दूसरी ओर यह सवाल भी उठाते हैं कि शराबबंदी केवल कागजों तक क्यों सीमित है?
सावन जैसे धार्मिक, आस्था-प्रधान महीने में शासन की ओर से देसी शराब मिस रंगीली पर रोक तो लगाई जाती है, लेकिन जमीनी सच्चाई इससे बिल्कुल उलट है – शराब अब भी बिक रही है, बस “पर्दे के पीछे”।


राजनीति, प्रशासन और पत्रकारिता – तीन ध्रुव, एक विषय

इस पूरे घटनाक्रम में जहां एक ओर राजनीतिक कटाक्ष है, वहीं प्रशासनिक नाकामी भी उजागर हो रही है। “समझो भारत” के संवाददाता ने इस खबर को दस्तावेज़ किया और सामने लाने का प्रयास किया कि:

  • सफाई कर्मचारी से लेकर जनप्रतिनिधि तक, जब संवाद व्यंग्य और व्यसन की भाषा में हो, तो समाज किस दिशा में जा रहा है?
  • मिस रंगीली की चर्चा से यह स्पष्ट होता है कि शराबबंदी नियमों का पालन सिर्फ दस्तावेजों में है, जबकि धरातल पर 'मदिरा' अब भी उपलब्ध है – और लोग खुले आम इसके बारे में बात कर रहे हैं।

यह सवाल हम सब से है…

  • क्या यह हमारी सामाजिक व्यवस्था की विफलता नहीं है कि शराबबंदी कानून को लोग मज़ाक में ले रहे हैं?
  • जब एक नगर पालिका कर्मचारी खुले आम कहे कि "मैं हर दिन ₹100 लेकर मिस रंगीली पीने जाता हूं", तो यह न केवल एक व्यक्ति की विफलता है बल्कि व्यवस्था की चूक भी है।
  • एक सभासद जब सोशल मीडिया पर इस तरह के कटाक्ष करता है, तो यह राजनीतिक संवाद की गिरावट भी दर्शाता है।

निष्कर्ष: व्यंग्य नहीं, यह चेतावनी है

यह पूरा मामला केवल हास्य या मज़ाक नहीं है। यह शराबबंदी की पोल खोलता सच है, जो सामाजिक विघटन, प्रशासनिक असफलता और राजनीतिक तकरार का आईना बन गया है।

शहर के सभी ज़िम्मेदार नागरिकों, जनप्रतिनिधियों और पत्रकारों को चाहिए कि वे इस पर खुली और ईमानदार चर्चा करें, ना कि एक-दूसरे पर तंज कसकर विषय की गंभीरता को हल्का करें।


📌 रिपोर्ट:
शौकीन सिद्दीकी,
पत्रकार, “समझो भारत” राष्ट्रीय समाचार पत्रिका, शामली
📞 8010884848
🌐 www.samjhobharat.com
📧 samjhobharat@gmail.com



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