यह घटना कई सवाल खड़े करती है—
क्या यह मजहब की पाबंदी थी या एक बीमार सोच की सनक?
एक पति और पिता इतनी छोटी-सी बात पर इतना क्रूर कैसे हो सकता है?
और सबसे अहम, क्या ऐसे कृत्य को किसी धर्म से जोड़कर देखा जा सकता है?
हत्या की वो खौफनाक रात
9 दिसंबर की रात आरोपी ने अपनी पत्नी से चाय बनाने को कहा। पत्नी जैसे ही रसोई में गई, पीछे से आकर उस पर गोली चला दी। गोली की आवाज सुनकर 14 वर्षीय बेटी की नींद खुली और वह घबराकर रसोई की ओर दौड़ी—लेकिन वहां उसका इंतजार एक पिता नहीं, बल्कि एक हत्यारा कर रहा था। उसने अपनी ही बेटी पर भी गोली चला दी।
इसके बाद 7 साल की मासूम बेटी आई। उस नन्ही-सी जान पर भी रहम नहीं किया गया। एक-एक कर तीन जिंदगियां खत्म कर दी गईं। सोचने वाली बात यह है कि जिस इस्लाम में मासूम बच्चे को डांटना तक मना है, वहां एक पिता का हाथ अपनी बच्चियों की हत्या करते वक्त कैसे नहीं कांपा?
मजहब नहीं, सनक है ये
इस्लाम में पर्दे की बात जरूर है, लेकिन किसी की हत्या करना हराम है। अगर पति-पत्नी के बीच किसी वजह से साथ निभाना मुमकिन न हो, तो इस्लाम तलाक को विकल्प देता है—हत्या को नहीं। नाहक मारे गए लोग इस्लामी मान्यताओं के अनुसार शहीद माने जाते हैं।
गढ़ी दौलत जैसे गांव में एक बड़ा इस्लामिक मदरसा है, जहां सैकड़ों छात्र पढ़ते हैं और उन्हें जिंदगी जीने का सलीका, इंसानियत और इस्लाम की खूबसूरत तालीम दी जाती है। ऐसे माहौल में पला-बढ़ा व्यक्ति अगर इस तरह की वारदात करता है, तो यह मजहब की नहीं, उसकी निजी मानसिक विकृति की कहानी है।
तर्क के नाम पर वहशियत
हत्यारे का कहना है कि पत्नी बुर्का नहीं पहनती थी, आधार कार्ड और वोटर आईडी नहीं बनवाई गई क्योंकि फोटो खिंचवाने से “लोग देखेंगे।”
यह तर्क खुद ही अपने आप में खोखला है। हर मुसलमान की ख्वाहिश होती है कि वह जिंदगी में कम से कम एक बार मक्का-मदीना जाए—और इसके लिए पासपोर्ट जरूरी है, जिसमें फोटो अनिवार्य होती है।
तो सवाल साफ है—
इतनी सख्ती को अगर सनक नहीं कहेंगे, तो क्या कहेंगे?
समाज के बीच छुपा भेड़िया
जो व्यक्ति समाज के बीच रहते हुए इस तरह की घटना को अंजाम देता है, वह इंसान नहीं, एक भेड़िया है।
वह न पति कहलाने का हकदार है, न पिता कहलाने का।
जो इंसानियत का दुश्मन हो, वह किसी भी मजहब का नहीं हो सकता।
निष्कर्ष
गढ़ी दौलत की यह घटना हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि अपराध को मजहब से जोड़ना सबसे बड़ी भूल है। यह मामला न इस्लाम का है, न किसी और धर्म का—यह एक बीमार मानसिकता, सनक और वहशियत का नतीजा है।
जरूरत इस बात की है कि समाज ऐसे लोगों को पहचानें, कानून सख्त सजा दे और हम सब मिलकर यह संदेश दें कि मजहब इंसानियत सिखाता है, हत्या नहीं।
“समझो भारत” राष्ट्रीय समाचार पत्रिका के लिए
शामली, उत्तर प्रदेश से पत्रकार ज़मीर आलम की खास रिपोर्ट
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