रिपोर्ट: ज़मीर आलम, गोरखपुर | समझो भारत राष्ट्रीय समाचार पत्रिका
गोरखपुर के एक सरकारी स्कूल में आज फिर वही हुआ, जो अक्सर होता रहता है — छत का प्लास्टर गिरा, और एक मासूम बच्चा लहूलुहान हो गया। सिर पर गहरी चोट आई, और खून ऐसे बहा जैसे स्कूल में शिक्षा नहीं, हादसों की तैयारी हो रही हो।
बच्चे क्लास में बैठकर पढ़ाई कर रहे थे। किताबें खुली थीं, अध्यापक मौजूद थे, माहौल पढ़ाई का था — लेकिन तभी अचानक छत का एक हिस्सा ढह गया। एक बच्चा उसकी चपेट में आ गया। सिर फट गया। चीख-पुकार मच गई। खून बहता रहा, लेकिन "सिस्टम" चुप रहा।
शुक्र मनाइए, यह हादसा किसी मंत्री या बड़े अधिकारी के बच्चे के साथ नहीं हुआ। अगर हुआ होता, तो शायद अफसरों की फौज स्कूल पहुंच चुकी होती। मीडिया लाइव अपडेट चला रहा होता, और अगले ही दिन स्कूल में नया प्लास्टर, नई छत और नया वादा होता।
लेकिन यह तो एक आम बच्चे की कहानी है, जो सरकारी स्कूल में पढ़ता है — गरीब माँ-बाप का सपना और सरकारी उदासीनता का शिकार।
सवाल उठता है...
- क्यों नहीं होती समय पर स्कूलों की मरम्मत?
- क्यों हर साल लाखों का बजट पास होने के बावजूद भवनों की हालत बदतर है?
- और सबसे अहम, कब तक गरीबों के बच्चों के सिर पर टूटती रहेगी सरकारी लापरवाही?
गोरखपुर की यह घटना सिर्फ एक प्लास्टर गिरने की नहीं, पूरा शिक्षा तंत्र चरमराने की चेतावनी है। बच्चों की सुरक्षा अब भी प्राथमिकता नहीं है। स्कूलों की हालत देखकर यह तय कर पाना मुश्किल हो जाता है कि हम 2025 में हैं या 1955 में।
"फिलहाल सब ठीक है"
स्थानीय अधिकारियों की भाषा में कहा जाए तो – “फिलहाल सब ठीक है।” बच्चा अस्पताल पहुंचा दिया गया है, टीचर ने रिपोर्ट कर दी है, और दीवार को अस्थायी तौर पर ठीक कर दिया गया है।लेकिन असली सवाल यह है — क्या यह आखिरी हादसा था? या अगली बार किसी और बच्चे की बारी है?
समझो भारत आपसे अपील करता है — सरकारी स्कूलों की जर्जर स्थिति को गंभीरता से लीजिए। ये बच्चे देश का भविष्य हैं, इन्हें खून से नहीं, कलम से रंगने दीजिए।
📍स्थान: गोरखपुर, उत्तर प्रदेश
✍🏼 रिपोर्टर: ज़मीर आलम
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