📍 बिडौली, उत्तर प्रदेश
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"हर दौर में कर्बला जिंदा है,
हर दिल में हुसैन का ग़म परिंदा है..."
मुहर्रम का महीना आते ही फिजा में ग़म और अदब की महक घुल जाती है।
और जब आशूरा का दिन आता है, तो वह ताज़ा हो जाती है वो तासीर, जो कर्बला की रेत में बहते हुए खून, प्यासे लबों और शहीदों की अज़मत को ज़िंदा कर देती है।बिडौली की सरज़मीं पर भी कुछ ऐसा ही मंज़र देखा गया जब दसवीं मोहर्रम, यानी यौमे आशूरा के मौके पर हज़रत इमाम हुसैन (अ.स) और उनके 72 जानिसार साथियों की शहादत को याद करते हुए शिया समुदाय के सोगवारों ने पुरअसर मातमी जुलूस निकाला।
मातम की रवायत, अज़ादारी का जलवा
जलूस का आग़ाज़ हुआ पूर्व प्रधान सय्यद फज़ल अली उर्फ़ अच्छू मियाँ के मकान से, जहाँ से शब्बी-ए-ताबूत, ज़ुल्जनाह और अलम के साथ जुलूस इमामबाड़ा से निकल कर गलियों से होता हुआ कर्बला पहुँचा। रास्ते भर "या हुसैन!" की सदाएं हवा में गूंजती रहीं, मानो खुद फिजा भी इस ग़म में शरीक हो गई हो।सोगवारों ने सीना ज़नी और ज़ंजीरों से मातम कर अपने इमाम की याद में अपनी वफ़ादारी और मोहब्बत पेश की। जुलूस में जगह-जगह शर्बत, चाय और तबर्रुक तकसीम किया गया।
मजलिस में मौलाना वसीम बहराइची का ख़िताब
जुलूस से पहले मजलिस का इनइक़ाद किया गया जिसमें मौलाना मोहम्मद वसीम बहराइच ने तक़रीर करते हुए कहा:"हज़रत इमाम हुसैन (अ.स) ने कर्बला में अपने छोटे-बड़े, बूढ़े-बच्चे सब कुछ कुर्बान कर दिया, लेकिन यज़ीद के ज़ुल्म और नाइंसाफ़ी के आगे सर नहीं झुकाया। इमाम की शहादत, इंसानियत, अदल और हक़ की सबसे बुलंद मिसाल है।"
उन्होंने यह भी कहा कि:
"दुनिया का सबसे अफ़ज़ल अमल है – झूठ न बोलना। जो इंसान सच्चाई के रास्ते पर चलता है, वही हुसैनी कहलाने का हक़दार है।"
मर्सिया, नोहे और अदबी अकीदत
मजलिस के बाद मर्सिया और नोहे पढ़े गए जो दिलों को ग़मगीन और आँखों को अश्कबार कर गए। इस मौके पर अली रज़ा, हमजा जैदी, सय्यद वसी हैदर, नफ़ीस शाह व अन्य शायरों ने अपने कलाम के ज़रिये शहीद-ए-कर्बला को पुरअसर अंदाज़ में याद किया।
अख़्तरियों की मौजूदगी और तहज़ीबी अनुशासन
पूरे जुलूस में सुरक्षा व्यवस्था चुस्त रही। पुलिस और पीएसी के जवानों ने गश्त करते हुए अमन और तहज़ीब के इस जुलूस को सफल बनाया। इस मौके पर दर्जनों अज़ादार मौजूद रहे जिनमें प्रमुख थे:सैय्यद फज़ल अली उर्फ़ अच्छू मियाँ, अली जोन, नियाज़ हैदर, ज़िंदा शाह, हामिद शाह, गुड्डू मियाँ, कमर अब्बास, बाक़िर अली, डॉक्टर बाक़र जैदी, आफ़ताब मेहदी, सलीम शाह, मोहसिन रिज़वी और दीगर अज़ादार।
कर्बला में ताज़ियों की दफनगी
जुलूस के आख़िरी मरहले पर जब कर्बला पहुंचा तो ताज़ियों को दफन किया गया। यह लम्हा मानो हर आंख को नम कर गया, जैसे इंसानियत फिर एक बार इमाम हुसैन के क़दमों में सिर झुका रही हो।मुहर्रम सिर्फ मातम नहीं है, यह एक पैग़ाम है — ज़ुल्म के सामने न झुकने का, हक़ के लिए आवाज़ बुलंद करने का। और बिडौली की यह अज़ादारी इसी पैग़ाम को आज भी ज़िंदा रखे हुए है।
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📞 शाकिर अली | पत्रकार
📌 "समझो भारत" राष्ट्रीय समाचार पत्रिका
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