16 अगस्त, 1942 की घटना
भारत छोड़ो आंदोलन के दौर में मुजफ्फरपुर में शहर से गांव तक आंदोलनकारी एकजुट होकर मोर्चा संभाले हुए थे। करो या मरो के नारे के बाद आंदोलन की तीव्रता और बढ़ गई थी। जुब्बा रघई कोठी में नौकरी करते थे। वे आंदोलनकारियों के संवाहक थे। रघई कोठी पर क्रांतिकारियों ने बैठक कर अंग्रेजी झंडा उतारकर भारतीय झंडा फहराने का निर्णय लिया। इसके लिए 16 अगस्त, 1942 की तिथि तय की गई थी। तय समय पर लोग थाने के पास जुटने लगे।
इसकी भनक तत्कालीन दारोगा एम. वालर को लग गई। उसने आंदोलनकारियों से निपटने की तैयारी कर ली थी। आसपास के कुछ लठैत और बदमाशों को भी जमा कर रखा था। हालांकि, क्रांतिकारियों के जोश के आगे उनकी नहीं चल पा रही थी। इतने में वालर ने पिस्टल से गोली चला दी। सबसे आगे जुब्बा के भाई बांगुर सहनी थे। गोली उनके सीने में लगी। भाई का बलिदान जुब्बा के लिए असहनीय था। उन्होंने बदला लेने की ठान ली।
थाने में फर्नीचर और फाइलों में केरोसिन छिड़क लगा दी आग
घटना के बाद लोगों ने वालर की खोज शुरू की। वह थाने के पीछे सनई के खेत में जाकर छिप गया था। जुब्बा उसके पीछे दौड़े। उनके पीछे-पीछे गांव वाले थे। वालर वहीं पकड़ा गया। जमकर पिटाई के बाद उसे लाठी और बेल्ट के सहारे टांगकर थाने में लाया गया। वहां मौजूद फर्नीचर और फाइलों में केरोसिन छिड़ककर उसे जिंदा जला दिया गया। यह घटना आग की तरह फैल गई।
जांच की प्रक्रिया आगे बढ़ी। सेशन ट्रायल के दौरान जज घटना में शामिल लोगों के नाम बताने के लिए जुब्बा सहनी पर दबाव बनाने लगा। इसके बदले आम माफी दिए जाने की पेशकश की गई। जुब्बा को यह प्रस्ताव नहीं भाया, उन्होंने भरी अदालत में कहा, वालर को मैंने मारा है और किसी ने नहीं। अंतत: उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई। 11 मार्च, 1944 को भागलपुर जेल में फांसी दे दी गई थी।
स्मारक याद दिलाती है घटना
बलिदानी जुब्बा सहनी व उनके भाई की कई वर्षों तक उपेक्षा होती रही। उनके नाम का कोई स्मारक नहीं था, जबकि मीनापुर में थाने के सामने वालर की प्रतिमा लगी थी। यह अंग्रेजों की दासता की हमेशा याद दिलानी थी। बाद में स्थानीय लोगों ने इस प्रतिमा को तोड़ दिया। फिर थाने के गेट के सामने बांगुर सहनी की प्रतिमा लगाई गई, जब कि जुब्बा सहनी की मानिकपुर में स्थापित की गई। मुजफ्फरपुर से सतीश कुमार झा की रिपोर्ट
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