लिव-इन- रिलेशन से हो रहा है भारतीय संस्कृति का अंत बिन फेरे-हम तेरे की आयु अल्‍प

लेखक बतरस लालू शर्मा/बतरस


हमारी संस्कृति पवित्रता कि संस्कृति रही है,लेकिन आज पश्चिमीकरण जिस तरह से हमारी भारतीय संस्कृति पर हावी होती जा रही है; उसका दुष्परिणाम अलग-अलग क्षेत्रों में अलग- अलग तरीके से पेश हो रहे हैं। भारतीय संस्कृति जीवन की पवित्रता में विश्वास करती है और इसके लिए तमाम तरह  के त्याग करने को तैयार रहती है, पर हमारी सांस्कृतिक वातावरण पर पश्चिमी वातावरण इस प्रकार हावी हो रही है कि हम अपनी पवित्रता और स्वच्छता को भूल कर पश्चिम का अंधानुकरण कर रहे हैं और इसमें हमारा सामाजिक और पारिवारिक संबंध पीसकर रह जाता है। आज के दौर में लिव-इन- रिलेशन यानि कि "बिन फेरे-हम तेरे"  का प्रचलन काफी तेजी से बढ़ गया है,जिससे भारतीय संस्कृति अंत के कगार पर है। हमारी भारतीय संस्कृति पर इस पश्चिमी सभ्‍यता के हावी होने पर आज के बच्‍चों या

 युवा पीढ़ी से ज्यादा हम गार्जन व अभिभावकों जिम्मेदार हैं।पश्‍चिमी सभ्‍यता व संस्कृति की चमक-धमक व चाल-चलन से प्रभावित होकर हम भी अपने बच्‍चों को खुद से दूर भेजकर उन जैसा बनाने की चाह रखते हैं और अपनी सभ्यता व संस्कृति की परवाह किये बगैर हम अपने बच्‍चों को शिक्षित करने के बहाने उस पश्चिमी सभ्‍यता व संस्कृति के आगे धकेल देते हैं और फिर बच्‍चों की जिद्‍द और ख्‍वाईशों को पूरा करने लाखों को भी खाख समझ उनकी हर उस जरूरतों को पूरा करते हैं,जिससे वह पश्चिमी सभ्यता की संस्कृति में जकरा चला जाता है। परिणाम स्‍वरूप हमारे यही होनहार बच्‍चे अपनी भारतीय संस्कृति को भूलकर पश्चिमी संस्कृति को पूर्ण रुपेण अपनाकर हर उस कार्य को कर बैठते हैं,जिसे सुन-जानकर अपने समाज में हमें लोक-लज्‍जा का सामना करना पड़ता है। हमारे बच्‍चे इस पश्चिमी

सभ्यता में इस हद तक डूब जाते हैं कि वह हमारे  रीति-रिवाज को भी तमाचा मारकर अपनी जिन्‍दगी का हर वह फैंसला ले लेता है,जिसकी भारतीय संस्कृति कभी इजाजत नहीं देता है।
ध्‍यान रहे कि जिस प्रकार साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है उसी तरह सभ्यता और संस्कृति से किसी भी देश या समाज की पहचान बनती है। भारत में सिंधु घाटी की सभ्यता से लेकर आज तक उसकी संस्कृति अविरल प्रवाहित होती चली आ रही है। यहां की उन्नत भाषा, रीति रिवाज, परंपराएं, कलाएं आदि इसका प्रमाण हैं, लेकिन हाल के कुछ वर्षो में हमारी नासमझ व हमारी सोच के कारण हमारे बच्‍चों ने पश्चिमी सभ्यता में रहकर लीव-इन-रिलेशन यानि बिन फेरे-हम तेरे को की पद्‍धति को अपना लिया है,जो कि भारतीय संस्कृति के लिए कदापि उचित नहीं है।

लिव-इन- रिलेशन का मतलब किसी महिला व पुरुष का शादी के बिना आपसी सहमति के बाद एक ही घर में पति-पत्नी की तरह रहना होता है। महानगरों में लिव- इन- रिलेशनशिप की शुरुआत शिक्षित और आर्थिक तौर पर स्वतंत्र ऐसे लोगों ने कि, जो कि विवाह की जकड़न से छुटकारा चाहते थे। इस रिश्ते को दूसरे पक्ष की सहमति के बिना कभी भी समाप्त किया जा सकता है। जबकि भारतीय संस्कृति में इस तरह के रिश्ते को शादी-विवाह कहा जाता है,जोकि न सिर्फ दो व्‍यक्‍तियों का बल्‍कि दो परिवारों का मिलन होता है।इसमें लड़का-लड़की को सामाजिक तौर पर एक सूत्र में बंधने की मान्‍यता होती है और इसमें स्‍त्री व पुरूष दोनों का सम्मान व प्रतिष्ठा निहित है।इसकी परंपरा भारतीय समाज में आरंभ से चली आ रही है,जोकि आम तौर पर अविवाहित पुरूष और अविवाहित महिला के बीच होती है।

पश्‍चिमी सभ्‍यता के इस लिविंग रिलेशन के लगातार तेजी से बढ़ते प्रचलन से लोगों का पारिवारिक व्यवस्था पर से उनकी पकड़ धीरे-धीरे खत्म हो रही है, बस आज के ऐसे बच्‍चों की एक ही इच्छा होती है कि वे अपने लिए मरे और अपने लिए ही जियें। उन्हें उनकी चिंता कतई नहीं होती कि,जिसने उसे जन्म दिया है, जिसने उसे पाला है, जिसने उसे संस्कार दिया है और जिस समाज में वह पल-बढ़कर बड़ा हुआ है।  अपना संस्कार खोकर पश्चिम के नए संस्कार में अपनी जिंदगी बिताते हुए कई युवा पीढ़ी एक ऐसे दलदल में जाकर फंस रही है, जिसे हम लिविंग रिलेशन कहते हैं। लिव इन रिलेशन पश्चिमी सभ्‍यता की देन है, जिसने हमारे पारिवारिक एवं भारतीय सभ्यता-संस्कृति, व्यवस्था को तहस-नहस कर दिया है और अगर इसका इसकी जड़ें तेजी से बढ़ती रहीं तो हिंदुस्तान की संस्कृति तेजी से समाप्ति की ओर बढ़ेगी और हमारा बहुत कुछ स्वाहा हो जाएगा।

लिव इन रिलेशनशिप” क्या भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति में स्वीकार योग्य है ?

ये बात अलग है कि माननीय उच्चतम न्यायालय ने शादी के बगैर साथ रहने और शादी के पूर्व सहमति से शारीरिक संबंध बनाने को अपराध नहीं माना है। माननीय उच्चतम न्यायालय ने इस कृत्य को अपराध नहीं निर्धारित करते समय यह भी कहा है कि याचिकाकर्ता इस सबंध में कोई प्रमाण पेश नही कर सका है और स्वयं आवेदक ने यह तथ्य, स्वीकार किया है। भारतीय संविधान के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय का निर्णय अंतिम और बंधककारी होता है और उच्चतम न्यायालय के निर्णय पर किसी प्रकार के बहस की भी कोई गुंजाइश भारतीय संविधान में नहीं है। इसलिए यदि उच्चतम न्यायालय का निर्णय गलत है तो उसपर पुनर्विचार याचिका उच्चतम न्यायालय में दाखिल की जा सकती है और तब याचिका कर्ता उस निर्णय में यदि कोई खामिंया है तो उनको माननीय उच्चतम न्यायालय के ध्यान में

लाकर निर्णय के परिवर्तन की मांग कर सकता है। हमारा यह आलेख लिखने का कदापि आशय माननीय उच्चतम न्यायालय के निर्णय को न तो चेलेंज करना है और न ही उस पर कोई बहस करना है लेकिन भारतीय समाज पर इस निर्णय का क्या परिणाम होगा, उसकी विवेचना मात्र ही इस आलेख का मुख्‍य उद्देश्य है।
माननीय उच्चतम न्यायालय जब यह कहता है कि शादी के बगैर साथ रहने का सहमति के साथ शारीरिक सबंध बनाना कोई ”अपराध” ”भारतीय दंड संहिता” में नहीं है तो वह सही कहता है। आपको मालूम होगा यह विवाद तब हुआ था जब अभिनेत्री खुशबू ने उक्त बयान दिया था और उसके आधार पर एक नागरिक ने एक याचिका माननीय उच्चतम न्यायालय में दाखिल की थी। यदि भारतीय दंड संहिता में जो वर्ष १८६० की बनी है में उक्त कृत्य को अपराध की

श्रेणी में नहीं लिया गया है तो इसका मतलब यह नहीं है की वह अपने आप में सही सिद्ध हो जाता है। भारतीय दंड संहिता लागू होने के बाद हमने उसमें आज तक कई संशोधन किये है और कई कृत्यों को भारत सरकार या राज्य सरकारों ने ‘अपराध’ की श्रेणी में लाकर दंड की व्यवस्था की है जैसे की अभी हाल ही में एक पति-पत्नि के बीच बिना सहमति के सहवास को बलात्कार माना गया है, जो भारतीय संस्कृति के लिए एक नई व्याख्या है। इसके लिए आवास्यकतानुसार भारतीय दंड संहिता की धारा ३७५ एवं ३७६ में संशोधन किया गया है। क्या ”सहमति” से प्रत्येक कृत्य को कानूनी जामा पहनाया जा सकता है?
भ्रष्टाचार के मामले में दोनों पक्ष ”सहमत” होते है लेकिन वह फिर भी कानूनी अपराध है। ”सहमति” लोकतंत्र का आधार व मजबूत  स्तंभ है। समाज को और देश को द्रुत गति से बढ़ाने का सबसे अच्छा प्रेरक

 ”सहमति” है लेकिन वह ”सहमति” अलग है जहां दो पक्ष दो व्यक्ति ‘सहमति’ बनाकर संस्कृति की मर्यादा को तार-तार कर दें, इसलिए हमें सहमति- असहमति में अंतर करना पड़ेगा तथा तदानुसार व्यवहार में भी।  इस संबंध में सरल कानून बनाने के लिए केंद्र सरकार को निर्देशित करनी चाहिए ताकि भारतीय महिलाएं और पुरुष मात्र विवाह विच्छेद के लिए विदेश न जा सके। विदेशो में जब लिव-इन- रिलेशनशिप के कारण विवाह जैसी संस्थाएं टूट के कगार पर है और उससे सामाजिक व्यवस्थाएं चर्मरा रही है तब वे भारत की ओर इस आशा के साथ देखते है कि यहां का सामाजिक ढांचा का आधार उसकी संस्कृति का आधारभूत स्तंभ शादी की वह व्यवस्था है, जहां महिला को एक भोग के रुप में न मानकर समान  रुप में दर्जा दिया गया है। चाहे फिर वह पत्नि के रुप में हो या माता, बेटी या बहन के

 रुप में हो। उस परिपेक्ष्य में यदि हम माननीय उच्चतम न्यायालय के उक्त निर्णय को देखें तो जो ”भाव” ”भारतीय संस्कृति” की ”नीव” है, आस्था है, ”रीड़ की हड्‌डी” है, उस भावना को देखते हुए माननीय उच्चतम न्यायालय से उस निर्णय को देते समय यह अपेक्षा की जाती है कि ‘लिव-इन-रिलेशनशिप’ जो भारतीय समाज को स्वीकार न होने के कारण एवं नैतिक मूल्यों के विरूञ्द्ध होने के कारण गलत है। इस कारण से भारतीय दंड संहिता में कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं होने के कारण इसके लिए कानून बनाने के लिए भारत शासन को निर्देश अवश्य दिया जाने चाहिए ऐसी माननीय उच्चतम न्यायालय से अपील किया जाना गलत नहीं होगा। यदि समाज उक्त कृत्य को स्वीकारता है तो उसके दुष्परिणाम अवश्य आयेंगे और उसकी समय सीमा उस कृत्य को समाज के द्वारा स्वीकारने की गति के साथ तय होगी।

भारत देश कृषि प्रधान देश है, देश की ३/४ जनसंख्या गांवो में रहती है महानगर देश की विकास के बिंब है। महानगर में रहने वाले व्यक्ति के विचारों के आधार पर यह सपूर्ण देश के विचार है, ऐसा मानना उचित नहीं होगा।
यह प्रश्न फ्री सेक्स या सेक्स की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने अथवा सेक्स स्वतंत्रता का नहीं है बल्‍कि यह प्रश्न जिस देश के सामाजिक संस्कृति में हम रहते है, जिसने हमारे जीवन को दिशा दी है क्या वह सही है या नहीं है...? और यदि वह सही है तो क्या उस संस्कृति में ‘लिव-इन- रिलेशनशिप’ शामिल है और यदि नहीं है तो उसे उचित कैसे कहा जा सकता है? कल को जब लिव-इन-रिलेशन के शिकार लोग अपना देश व समाज की ओर रूख करेगा या उनकी अपनी संतानें बडी़ होंगी या फिर ऐसे संबंध टूटकर बिखर जाएंगे तब ऐसे में

ऐसे लोगों का अपने ही समाज में क्या स्थान होगा ? यह एक बड़ा मुद्‍दा और एक बड़ा प्रश्न है और शायद ऐसे लोग इस तरह के सवालों का जवाब भी धन-बल और छल को ही सब कुछ मानेंगे,मेरे खयाल से यह कतई उचित नहीं है।
जब हम इस कृत्य की कल्पना करते है तब उस समय एक पुरुष के सामने महिला होती है और वह महिला हमारी मां, बहन, बेटी भी हो सकती है या अन्य कोई भी। क्या लिव-इन- रिलेशनशिप के पक्षधर लोगो से यह प्रस्न नहीं पूछा जाना चाहिए कि उसे स्वीकार करने के लिए इन महिला में से कोइ एक हो तो क्या वे इसे स्वीकार करेंगे...? किसी भी मुद्‍दे या सवाल पर उपदेश व तर्क करना आजकल एक आम चलन हो गया है पर इसे खुद पर लागू करना बहुत ही कठिन है। कहने का तात्पर्य यह है जब कोई व्यक्ति किसी कृत्य को सही ठहराने

 का प्रयास करता है, तो सर्वप्रथम उसका यह नैतिक दायित्व बनता है कि वह उस कृत्य को स्वयं पर लागू कर उसे सही सिद्ध करें, तभी वह उसको दूसरो पर लागू करने का नैतिक अधिकारी होता है। अन्यथा सुर्खिया पाने के लिए बयान देने वाले वीरों की कमी इस देश में नहीं है। ”लिव-इन-रिलेशनशिप” के आधार पर जो संतानें उत्पन्न होंगी, उनके भविष्य का क्या होगा...?
पिछले दिनों जब 'लिव-इन-रिलेशनशिप' पर आधारित एक फिल्म 'सलाम-नमस्ते' का प्रदर्शन हुआ था, तब इस तरह के रिश्ते को लेकर देशभर में चर्चाएँ छिड़ी हुई थीं कि क्या ये संबंध भारतीय संस्कृति के अनुकूल हैं...? लेकिन अब बदलते परिवेश में खुद सरकार ही इस रिश्ते को मान्यता देने का मन बना रही है और तब सवाल यह उठ रहा है कि ऐसे संबंध कितने प्रतिशत उचित होंगे...? युवाओं का खुले तौर

 पर प्रेम-प्रदर्शन करना कानूनी व सामाजिक दृष्टि में भले ही अनुचित कृत्य माना जाता है,किंतु प्यार की बयार में उड़ते इन स्वच्छंद परिंदों को ज़माने की भला क्या परवाह हो सकती है...?
' बिन फेरे हम तेरे' की तर्ज पर महाराष्ट्र सरकार कैबिनेट द्वारा लिव-इन-रिलेशनशिप को कानूनी मान्यता प्रदान करने का प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजते ही ये स्वच्छंद संबंध फिर से सुर्खियों में आ गया है। एक तरफ है वैवाहिक बंधन जिसकी बुनियाद सात फेरों पर टिकी होती है। भारतीय संस्कृति में तो विवाह को 'पाणिग्रहण संस्कार' के रूप में सामाजिक मान्यता प्राप्त है लेकिन वहीं इन संस्कारों को दरकिनार करते हुए बगैर किसी सामाजिक मान्यता और स्वीकृति के साथ रहने की अनुमति संबंधों के एक नए ताने-बाने को जन्म देते हुए

 अपने पीछे कई सवालों को खड़ी कर रही है यह लिव-इन-रिलेशन!
एक ऐसा रिश्ता, जो समाज की परवाह किए बगैर दो दिलों को जोड़ता है, जिसे 'लिव-इन-रिलेशनशिप' कहा जाता है। इनमें न तो सात फेरों का बंधन और न समाज के रीति-रिवाजों की परवाह। यह रिश्ता तो आपसी समझ, पसंदीदा जीवनसाथी का चुनाव व उन्मुक्तता की नींव पर खडी़ होती है।
कहते हैं युवा जोश और उत्साह से परिपूर्ण व मनमौजी होते हैं। ये वही करते हैं जो इनका दिल कहता है। इसी दिल की आवाज ने इन्हें बगैर किसी बंधन में बँधे ही एक ऐसे रिश्ते से बाँध दिया है, जिसकी शुरुआत आपसी विश्वास व समझौते के आधार पर होती है। यह वह रिश्ता है, जिसे पहले जिया जाता है फिर सोच-समझकर आगे बढ़ाने की कोशिश की जाती है। इस रिश्ते की आयु आपसी समझ व

विश्वास पर निर्भर करती है। पश्चिमी सभ्यता की तर्ज पर भारत में भी 'लिव-इन-रिलेशनशिप' बडी़ तेजी से प्रचलित हो गई है। इस पश्चिमी सभ्यता की बीमारी भारत के हर राज्‍यों व जिलों में कोरोना वायरस की तरह फैलती जा है। कइयों की इकलौती संतानें लंदन,इंगलैंड,अमेरिका,आस्ट्रेलिया आदि ऐसे विदेशों और कईयों के तो अपने देश के ही मुम्बई,गोआ,चेन्‍नई,बंग्‍लोर आदि में शिक्षा पाने या सर्विश के बहाने इस पश्चिमी सभ्यता के दीवानगी में लिव-इन-रिलेशन रोग के शिकार हो चुके हैं। भारतीय सभ्यता के अंतर्गत शादी-विवाह हेत उम्र की सीमा पार कर कई बड़ॆ घर की संतानें अपने गार्जन व अभिभावकों का आर्थिक दोहन कर रहे हैं।आश्‍चर्य तो तब होता है,जब कुछ गार्जन अपनी देशी सभ्‍यता के हनन होने पर भी फक्र महसूस करते हुए अपनी संतानों को लाख- दस लाख रुपये हर माह-साल इस तरह भेजते हैं कि जैसे वह पूरी की पूरी पश्चिमी सभ्यता को खरीदकर अपने पूरे खानदान को तारकर उन्‍हें स्‍वर्ग की गद्‍दी पर बिठा दैंगे।

मगर ये सत्‍य है कि इस तरह चोरी-छिपे, अनुबंध विवाह या अवैध संबंधों की आड़ में ये रिश्ते जो आज फल-फूल रहे हैं,इन संबंधों की आयू सीमा बहुत ही कम होती है।कब किस मोड़ पर या किस बात पर बिन फेरे-हम तेरे वाले रिश्‍ते टूट जाएंगे,कहना मुश्‍किल है।लिव-इन- रिलेशन किसी तारती नहीँ बल्‍कि यह भारतीय संस्कृति के साथ- साथ कई पीढी़ को मारती जरूर है। ऐसे में जो महाराष्ट्र सरकार के द्‍वारा इन रिश्तों की मंजूरी का प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा जाना,इन प्रेमियों के संबंधों के लिए उम्र बढ़ाने वाली ऑक्सीजन का कार्य कर रहा है,जो भारतीय संस्कृति के लिए कदापि उचित नहीं है।
आज भारतीय समाज की परवाह एसी संतानों और इन संतानों के गार्जनों को नहीं है क्‍योंकि वे भूल चुके हैं कि हम सभी अपने भारतीय समाज का एक अनिवार्य हिस्सा हैं। समाज के कायदे-कानून का

पालन करना हम सबकी जिम्मेदारी है। ये सामाजिक बंधन ही हैं जो व्यक्ति को लोकाचार, शिष्टाचार व रीति-रिवाजों के बंधनों से बाँधते हैं। इससे व्यक्ति का आचरण स्वत: अनुशासित हो जाता है। लेकिन समाज की परवाह किए बगैर एक ऐसे रिश्ते को जिया जाना जो सामाजिक संबंधों से परे हों, उसकी विश्वसनीयता और वैधानिकता दोनों को ही संदेह के कटघरे में खड़ा करती है। जिन राज्यों में प्रेम के इजहार का अर्थ ही खुलापन है, वही राज्य इस रिश्ते को वैधानिक स्वरूप देने के लिए आधार तैयार कर रहे हैं। ऐसे ही राज्यों की सूची में शुमार है - गुजरात और महाराष्ट्र। यह बात और है कि इसकी पहल गुजरात की बजाय उसके समीपवर्ती राज्य महाराष्ट्र ने की है। यहाँ प्यार के इजहार के लिए सार्वजनिक स्थान प्रेमी युवाओं की पहली पसंद होती है। हो सकता है समाज की तरुणाई पर हावी स्वच्छंदता

का यह मर्यादाहीन आचरण देखकर सरकार ने इसे कानूनी रूप से संरक्षण देने के लिए एक नई शुरुआत करने की पहल की है। मगर इसका सारा दारोमदार अब केंद्र सरकार पर निर्भर है।जिस देश में एक ओर स्कूलों में यौन शिक्षा की अनिवार्यता व स्वास्थ्य मंत्री अंबुमणि रामदास का समलैंगिक संबंधों की पक्षधरता में दिया बयान आदि बवाल का विषय बनकर सामाजिक रीति-रिवाजों के तीखे नुकीले वारों से धराशायी हो जाते हैं, ऐसे में 'लिव-इन-रिलेशनशिप' की मान्यता को कितना जनसर्मथन मिलेगा...? यह कहना अभी मुश्किल होगा।

माननीय उच्चतम न्यायालय ने जो निर्णय दिया वह उनके समक्ष प्रस्तुत जो विद्यमान कानून है उनके तहत ही दिया है। यदि उनके इस निर्णय ने उक्त विषय पर एक बहस छेड़ दी है तो उस बहस का अंतिम पटाक्षेप तभी होगा जब भारत सरकार उस पर भारतीय संस्कृति के अनुरूप एक कानून लाएं जैसे कि शाहबानो प्रकरण में लाया गया था।

जिस दिन महाराष्ट्र कैबिनेट द्वारा यह प्रस्ताव पारित हुआ, उसी दिन देश के समाचार चैनलों पर आमजन की प्रारंभिक राय एसएमएस व वोटिंग के जरिए सामने आई है। इसमें प्रस्ताव के विरोध में ज्यादा आवाजें उठी हैं। इसे देखते हुए इस रिश्ते का प्रस्ताव अधर में नज़र आता है।
अब देखना तो यह है कि देश का जनमानस इस प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए 'सलाम' कहता है या फिर दूर से ही 'नमस्ते' कहकर इस प्रस्ताव को ठुकरा देता है।
तो फिलहाल इतना ही जय बिहार....जय बिहारी
लेखक बतरस लालू शर्मा

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