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प्रस्तावना:
क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे पूर्वजों ने जिस विवाह और परिवार की व्यवस्था को समाज की रीढ़ समझा, वही व्यवस्था आने वाले वर्षों में एक बोझ या "अवांछनीय विकल्प" बन सकती है? आज के सामाजिक, आर्थिक और मानसिक परिवेश में नवयुवकों की सोच में तेजी से बदलाव आ रहा है। शादी, बच्चे और गृहस्थ जीवन अब जीवन का लक्ष्य नहीं बल्कि एक अनिश्चित और महंगा समझौता बनते जा रहे हैं।
आज की युवा सोच: शादी से दूरी क्यों?
महंगाई, बेरोजगारी, शिक्षा और स्वास्थ्य की बेतहाशा लागत ने आज के युवा वर्ग को इस कगार पर ला खड़ा किया है कि वह अपनी ज़िंदगी को लेकर नए सिरे से सोचने लगा है।
अब शादी महज़ दो आत्माओं का मिलन नहीं रही, बल्कि आर्थिक बोझ, सामाजिक अपेक्षाएं और मानसिक तनाव का दूसरा नाम बन गई है।
👉 लड़कियाँ क्यों घबरा रही हैं शादी से?
- स्वतंत्रता की चाह: लड़कियाँ अब आत्मनिर्भर बन रही हैं। वो अपनी शर्तों पर जीवन जीना चाहती हैं, जिसमें उन्हें पारंपरिक सास-बहू के झमेलों और चौबीसों घंटे की गृहस्थी की ज़िम्मेदारियों का डर है।
- करियर प्राथमिकता: शादी और परिवार अक्सर करियर के बीच बाधा बनते हैं, खासकर माँ बनने के बाद।
👉 लड़कों का झिझकना भी स्वाभाविक है:
- कम आमदनी, ज़्यादा खर्चे: आज के युवा लड़के जानते हैं कि परिवार चलाना महज़ भावनाओं से नहीं, पैसों से होता है — जो उनके पास कम है।
- मानसिक दबाव: पत्नी, बच्चे, किराया, स्कूल फीस, बुज़ुर्ग माता-पिता — एक ही कमाई से सब चलाना आसान नहीं है।
क्या विवाह का विकल्प त्याग है?
मेरी तो स्पष्ट राय है: जब तक सरकार या समाज, विवाह और बच्चों की ज़िम्मेदारी को साझा नहीं करता, तब तक युवाओं को विवाह करने की कोई ज़रूरत नहीं है।
- सवाल ये नहीं कि बच्चा क्यों नहीं चाहिए, सवाल ये है कि क्या बच्चा पालना संभव है?
- अगर बच्चा पैदा कर के उसे 15,000 रुपये की नौकरी में जोत देना है, जहाँ वह 12 घंटे एक मशीन की तरह काम करे, तो ये अन्याय है — बच्चे के साथ भी और माँ-बाप के साथ भी।
क्या अब परिवार नहीं, सिर्फ ‘फ्रीडम’ ज़रूरी है?
एक बच्चा पालने में लाखों रुपये खर्च होते हैं — स्कूल, कोचिंग, कपड़े, खाना, इलाज, मोबाइल, और बाद में कॉलेज।
अगर वही पैसा आप अपने बुढ़ापे के लिए बचा लें और अकेले या साथी के साथ आज़ादी से जिंदगी जिएं, तो शायद ज़्यादा बेहतर हो।
- शादी नहीं तो तलाक का डर नहीं।
- बच्चे नहीं तो उनकी पढ़ाई और शादी का खर्च नहीं।
- तनाव नहीं तो दवाइयाँ नहीं।
- और हां, बुढ़ापे में अकेलापन भी अब ऑनलाइन दुनिया में इतना कड़वा नहीं रहा।
समाधान क्या है?
सरकार को इस मुद्दे पर मौलिक नीति बनानी चाहिए:
- अगर आप बच्चों की ज़रूरत समझते हैं, तो हर बच्चे की शिक्षा और स्वास्थ्य का खर्च सरकार उठाए।
- सरकारी स्कूलों और कॉलेजों को इतना सक्षम बनाया जाए कि हर वर्ग का बच्चा वहां सम्मान से पढ़ सके।
- काम करने वाले युवाओं पर टैक्स का इतना बोझ न हो कि वे परिवार से डरने लगें।
निष्कर्ष:
विवाह और संतान की संस्था पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। अगर समाज और सरकार इस जिम्मेदारी में बराबरी का हिस्सा नहीं निभाते, तो युवाओं को पूरा अधिकार है कि वे शादी और संतान की दौड़ में शामिल न हों।
“बिंदास जियो” — यही होना चाहिए नया मंत्र।
एक स्वतंत्र, जिम्मेदारी-रहित, आर्थिक रूप से स्थिर और मानसिक रूप से संतुलित जीवन आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है।
और याद रखिए —
आपकी जिंदगी आपकी है, समाज या सरकार की नहीं।
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