ककराला तारीख के आईने मे, अपने खून से लिखा ककराला के मुस्लिम भट्टी राजपूतों ने 1857 का इतिहास, उतरा तेरे किनारे जब कारवाँ हमारा, मज़ार सैय्यद इब्राहीम शाह बाबा जहां ककराला के मुस्लिम भट्टी राजपूतों का पहला कारवाँ उतरा



अंग्रेजों की बनाई स्थाई जेल बड़ा बाग (शहीद स्थल ककराला ) 

भारतीय इतिहास राजस्थान की बहादुर कौम राजपूतों की वीरता रण शैली, गाथाओं से भरा पड़ा है। इन्हीं राजपूतों में कई प्रसिद्ध गोत्र है, भट्टी राणा, चौहान, तोमर, पुणीर, रावत, भाटी सोलकी सिसौदिया, गौतम, परमार, राठौर जैसे गोत्र युद्ध कला के विशेषज्ञ माने जाते हैं इतिहास की प्रसिद्ध पुस्तक "तारीखे फरिश्ता के अनुसार इनमें भट्टी गोत्र अपने आप में बेहद कठोर और शक्तिशाली था। यह लोग खास तौर पर घुडसवारी में मंगोलों की तरह माहिर थे। भट्टी राजपूतों की दो विशेषताएं हैं एक न्यायप्रियता और मात्रभूमि और अपने सम्मान की सुरक्षा के लिये जीवन आहूति बदायूँ जनपद का 80,000 आवादी वाला उपनगर ककराला इन्ही मटटी राजपूतों की बस्ती है।


1610ई0 में बंगाल वर्द्धमान में शेर अफगान को पराजित कर नूरजहाँ को बंदी बनाकर यहीं के लोग आगरा ले गये थे। बाद में नूरजहाँ ने जहागीर के नाम पर भारत में शासन किया। भट्टी राजपूतों ने इसके विरोध में राजधानी आगरा को छोड़ अज्ञातवास का निर्णय लिया और सत पीर सय्यद इब्राहिम बाबा के यहां शरण ली. जिन्होंने ककराला बसाया। ककराला आकर तब तक अज्ञातवास में रहे जब तक जहाँगीर की मृत्यु न हो गयी। नूरजहाँ जहाँगीर के बाद अपने दामाद शहरयार को राजगद्दी दिलाना चाहती थी ककराला के भट्टी राजपूतों ने आगरा जाकर इसका विरोध किया और शाहजहाँ को भारत का शासक बनने में मदद की। इसी समय से एक बार फिर ककराला के लोग राजधानी में प्रभावित हो गये। अज्ञातवास के समय में ही भट्टी राजपूतों ने अपन धर्म और लिवास बदल लिया था।

परन्तु यह लोग आज भी शादी व्याह किसी बाहरी गोत्र से नहीं करते। आज भी इनकी भाषा में राजस्थान और आगरा दरबार के प्रचलित फारसी भाषा के शब्द बहुतयात से मिलते हैं। ककराला के लोग शाहजहाँ से लेकर मुहम्मद शाह रंगीले तक के दरबार से जुडे रहे। परन्तु युद्ध कला एवं वीरों को उचित सम्मान न मिलने के विरोध में उन्होंने एक बार फिर राजधानी दिल्ली को छोड़ दिया और ककराला आकर रहने लगे। 1857 में भारतीय राजनीति में अहम मोड़ आया।


बहादुर शाह जफर नाममात्र के मजबूर बादशाह रह गये थे। अवध के नबाव वाजिद अली शाह, रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, टीपू सुल्तान सभी ईस्ट इंडिया कंपनी के कब्जे से भारत को मुक्त कराना चाहते थे। अंग्रेजों के दमन चक्र की रफ्तार पराकाष्ठा को पहुंच चुकी थी। अतः इन सब ने एक निर्णायक जंग का फैसला लिया और अपना लीडर बहादुर शाह जफर को घोषित कर दिया। निर्णय लिया गया कि यह लड़ाई पूरे भारत वर्ष में लड़ी जायेगी रूहेलखण्ड में । यह लड़ाई रोहेला सरदार हाफिज रहमत खाँ के नेतृत्व में लड़ी गयी हाफिज रहमत खाँ की फौज चाहती थी कि इस जंग में उसका रणक्षेत्र के विशेषज्ञ ककराला के भट्टी राजपूत दें उनके अनुरोध पर बहादुर शाह जफर ने अपने बेटे फीरोज शाह को अपना पैगाम लेकर ककराला भेजा।

फीरोज शाह मुगल दरबार में उनके योगदान की सराहना करते हुये और अपनी रिश्तेदारी का वास्ता देते हुये एक बार फिर उनसे मदद की गुहार की। ककराला वालों ने फीरोज शाह की खातिर की। उस समय गेहूँ की फसल तैयार थी तमाम ककराला वासी खलियानों में ही थे। सभी लोग इकटठे हुये और आनन फानन में लोगो ने हंसिये छोड़कर तलवारें उठा ली। ककराला को स्वतन्त्रता सेनानियों का विरोध कैम्प बना दिया गया बरेली की ओर से हाफिज रहमत खाँ की फौज का आगमन होना था। ककराला वासियों ने ककराला से पश्चिम महेरानाम स्थान पर अपने मोर्चे बनाये। इधर अग्रेजों ने इस कैंप को तबाह करने की जिम्मेदारी ब्रिगेडियर कुक को सौंपी मगर अंग्रेजी सेना टिक न सकी और अधिकांश सेना मारी गई।

इन परिस्थितियों को देख अंग्रेजों ने ब्रिटेन के मशहूर युद्ध विशेषज्ञ जनरल पैनी को भारत बुलाया। उसने आते ही ककराला में मोर्चा संभाला और घमासान युद्ध हुआ। दोनों तरफ से लोग मारे जाते लेकिन ककराला वालों का टारगेट अंग्रेजी फौज नहीं बल्कि जनरल पैनी था। फौज का घेरा तोड़ने के बाद ककराला वाले जनरल पैनी को पीछे हटाते हुए ककराला पश्चिम पुल तक ले आये जहाँ एक कुशल तोपची अपनी तोप पेड़ से बांधे शायद इसी मौके का इंतजार कर रहा था।

एक तेज धमाका हुआ और जनरल पैनी के शरीर के टुकड़े-टुकड़े हो गये। अंग्रेजी सेना का गुरूर ककराला की मिट्टी मे मिल चुका था। इस जंग में मंगल खॉ, रूस्तम खाँ, गुलामी खॉ, सरदार खॉ, रहमान खॉ, चहारम खॉ, दिलावर खॉ, वासल खॉ, फौजदार खॉ ने अपने मोर्चे की कमान संभाल रखी थी। इस जंग में इन लोगों का विशेष योगदान था। यह अलग बात है कि आजाद भारत में किसी भी ककराला वासी को स्वतन्त्रता सेनानी का प्रमाण पत्र नहीं दिया गया और न ही ककराला वासियों को सरकारी मदद में इसका कोई लाभ दिया गया जबकि सरकारी गजट इस साक्ष्य पर अपनी मुहर लगा चुका है।

यहां बताते चलें कि पूरे भारत में 1857 का युद्ध बंद हो गया। था। परन्तु ककराला में युद्धबन्दी के बाद अंग्रेजों ने अपनी सारी शक्ति ककराला वालों से जनरल पैनी का बदला लेने पर आग लगा दी। उनकी जमीनें जब्त कर ली गई। अपनी ही जमीन पर गेंहू के बजाय नील की खेती करने के लिये बाध्य किया गया एक सरकारी कोठी नील एकत्र करने के लिए बनाई गई। ककराला में आज भी यह मोहल्ला कोठी मोहल्ला के नाम से जाना जाता है। पूरब थोक बड़े बाग में एक जेल का निर्माण किया गया। समस्त स्वतन्त्रता सेनानियों को उसमें बंद कर दिया गया।

रोजाना पांच कैदियों को बाहर निकाल कर दूसरे कैदियों के सामने गोली मार दिया जाया करती थी। इस दमन के बारे में जब भारतवर्ष के लोगों को मालूम हुआ तो इन्होंने इसकी आवाज मलका बिकटोरिया के आगमन पर उठाई और तब कही जाकर दमन का यह सिलसिला समाप्त हुआ। कुछ भी हो यह बहादुर कौम नफा-नुकसान का हिसाब लगाये बगैर आज भी राष्ट्र-प्रेम से शरोबर है और यदि मुल्क पर कोई भी आंच है तो आज भी भट्टी राजपूतों के खून में उबाल आने लगता है। स्रोत्र:- स्वतन्त्रता सेनानी गुलाम अली खाँ के पौत्र डा० फिरासत अली की हस्त लिखित पुस्तक जो इन्होंने 1927 में लिखी थी। उस पर आधारित हामिद अली खाँ राजपूत

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