पालघर की घटना जिस तरह अंजाम दी गई, अब वो इस देश में नया नहीं है, अलग बस ये है कि इस बार दलित, अल्पसंख्यक या कोई कमज़ोर इसका शिकार नहीं हुआ

2 साधु और 1 ड्राइवर घेरकर मारे गए। दोनों साधुओं का संबंध अखाड़ा परंपरा के सबसे ताकतवर जूना अखाड़े से है। संभवत: यही कारण है कि 24 घंटे में गृहमंत्रालय ने महाराष्ट्र सरकार से रिपोर्ट तलब कर ली, UP सरकार ने फोन मिलाकर कार्यवाही की अपील कर दी और खुद मुख्यमंत्री महाराष्ट्र ने कैमरे पर आकर जांच तथा कार्यवाही की प्रगति का ब्यौरा दे दिया।
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पहलेपहल मरनेवालों के कपड़े देखकर कुछ लोगों ने इसे "तब लिखा तो अब क्यों नहीं लिखते" का मौका माना, लेकिन जब पता चला कि खून की प्यासी भीड़ वो नहीं है जो समझी जा रही है, तो उत्साह शांत पड़ गया। ये धार्मिक कारणों से उपजी घटना थी ही नहीं, एक गलतफहमी थी जिस वजह से लिंचिंग हुई। बावजूद इसके मामले की गंभीरता कम करके नहीं आंकी जा सकती। इसे पहले हुई तमाम घटनाओं से किसी प्रकार कम ना माना जाए, क्योंकि अब वो भी लिंच हो रहे हैं, जिनके साथ ऐसा होने की आशंका नहीं थी।
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क्राइम रिपोर्टर शम्स ताहिर खान ने करीब पौने 2 साल पहले 26 जुलाई 2018 को एक लेख लिखा था। तब उन्होंने 1 आंकड़ा इसमें शामिल किया था। उन्होंने बताया था कि 4 साल में मॉब लिंचिंग के 134 मामले सामने आए हैं, और एक वेबसाइट का कहना है कि 2015 से लेख लिखे जाने की तारीख तक 68 लोगों की जान जा चुकी है। लेख में विश्लेषण करते हुए शम्स ने बताया था कि केवल गोरक्षा के ही नाम पर 85 गुंडागर्दी के मामले सामने आ चुके थे, जिनमें 34 लोग मारे गए और 289 लोगों को अधमरा कर दिया गया. साफ है कि 50% मामले गोरक्षा के नाम पर अंजाम दिए गए।
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गाय के नाम पर हुई गुंडागर्दी के अलावा बाकी मामलों में बच्चा चोरी का शक, किसी और प्रकार की चोरी का संदेह या फिर वारदात करके भागनेवालों की लिंचिंग शामिल है। पालघर में भी शक बच्चा चोरी का ही था। यदि अपराध की प्रकृति की बात छोड़ दें तो ये ख़तरनाक है कि इस दशक में अचानक ही लिंचिंग की असभ्य और बर्बर प्रवृत्ति बढ़ी है। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने मांग रखी कि संसद विशेष तौर पर मॉब लिंचिंग के खिलाफ 1 नया कानून लेकर आए। ऐसी मांग स्वाभाविक है, क्योंकि हत्या का ये तरीका इससे पहले अफगानिस्तान या पाकिस्तान के उन हिस्सों से अधिक सुनने में आता रहा, जहां जनता की चुनी गई सरकार की पकड़ कमज़ोर है, लेकिन किसी ऐसे देश या इलाकों में लिंचिंग होना जिनके हम मुख्यधारा के साथ चलने का गुमान पाले बैठे हैं, बेहद अफसोसनाक है।
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मॉब लिंचिंग करनेवालों के हौसले कितने बुलंद हैं, ये ऐसे समझिए कि पालघर में साधुओँ की हत्या से एक दिन पहले वहीं डॉक्टर्स और पुलिस पर हमला हुआ था, ऐसी जानकारी मिली है। फिर साधुओं वाला मामला हुआ, जहां पुलिस ने पहले उन्हें बचा लिया, लेकिन जीप में बैठाने के दौरान लोग फिर भड़क उठे और 3 निर्दोषों को मार के दम लिया। हद तो तब हुई जब अगले दिन पुलिस गांव में आरोपियों को गिरफ्तार करने पहुंची और 1 बार फिर भीड़ की हिंसा का सामना करना पड़ा।
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क्या लिंचिंग करके बच निकलने की आश्वस्ति इस दुस्साहस का कारण है? सुप्रीम कोर्ट तक मॉब लिंचिंग को लेकर फिक्र ज़ाहिर कर चुकी है। सरकार ने तो कह दिया था कि मौजूदा कानून पर्याप्त हैं और नए कानून की ज़रूरत नहीं। यहां तक कि तत्कालीन गृहमंत्री ने तो "1984 में सबसे बड़ी लिंचिंग हुई थी" जैसा बयान देकर व्हाटअबाउटरी खेली थी, लेकिन अब जो मौका मिले तो उनसे पूछा जाना चाहिए कि आपका क्या कहना है?
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वैसे कुछ गाइडलाइंस लिंचिंग पर सुप्रीम कोर्ट ने पहले से जारी कर रखी हैं (साल 2019 में 'आजतक' में प्रकाशित लेख) उनमें से कुछ यूं हैं-

1. सभी राज्य सरकारें अपने यहां भीड़ हिंसा और मॉब लिंचिंग की घटनाओं को रोकने के लिए प्रत्येक जिले में 1 नोडल अधिकारी की नियुक्ति करें, जो पुलिस अधीक्षक (SP) रैंक या उससे ऊपर के रैंक का अधिकारी होना चाहिए, इस नोडल अधिकारी के साथ DSP रैंक के 1 अधिकारी को भी तैनात किया जाना चाहिए, ये अधिकारी जिले में माॅब लिंचिंग रोकने के लिए स्पेशल टास्क फोर्स का गठन करेंगे, जो ऐसे अपराधों में शामिल लोगों, भड़काऊ बयान देने वाले और सोशल मीडिया के जरिए फेक न्यूज को फैलाने की जानकारी जुटआएगी और कार्रवाई करेगी।

2. नोडल अधिकारी स्थानीय खुफिया ईकाई और SHO के साथ नियमित रूप से बैठक करें, ताकि ऐसी वारदातों को रोकने के लिए कदम उठाया जा सके, साथ जिस समुदाय या जाति को मॉब लिंचिंग का शिकार बनाए जाने की आशंका हो, उसके खिलाफ बिगड़े माहौल को ठीक करने की कोशिश की जाए।

3. राज्यों के DGP और गृह विभाग के सचिव जिलों के नोडल अधिकारियों और पुलिस इंटेलीजेंस के प्रमुखों के साथ नियमित रूप से बैठक करें, अगर किन्हीं 2 जिलों के बीच तालमेल को लेकर हो रही दिक्कतों को रोकने के लिए कदम उठाया जा सके।

4. पुलिस अधिकारी दंड प्रक्रिया संहिता(CRPC) की धारा 129 में दी गई शक्तियों का इस्तेमाल कर भीड़ को तितर-बितर करने का प्रयास करें।

5. केंद्रीय गृह विभाग भी मॉब लिंचिंग की घटनाओं को रोकने के लिए राज्य सरकारों के बीच तालमेल बैठाने के लिए पहल करे।

6. केंद्र सरकार और राज्य सरकारें रेडियो, टेलीविजन और मीडिया या फिर वेबसाइट के जरिए लोगों को यह बताने की कोशिश करें कि अगर किसी ने कानून तोड़ने और मॉब लिंचिंग में शामिल होने की कोशिश की, तो उसके खिलाफ कानून के तहत सख्त कार्रवाई की जाएगी।

7. अगर तमाम कोशिशों के बावजूद मॉब लिंचिंग की घटनाएं होती हैं, तो संबंधित इलाके के पुलिस स्टेशन बिना किसी हीला-हवाली के फौरन FIR दर्ज करें।

8. नोडल अधिकारी को सुनिश्चित करना होगा कि मॉब लिंचिंग की घटनाओं की प्रभावी जांच हो और समय पर मामले की चार्जशीट दाखिल की जा सके।

9. राज्य सरकार ऐसी योजना तैयार करें, जिससे मॉब लिंचिंग के शिकार लोगों को CRPC की धारा 357A के तहत मुआवजा देने की व्यवस्था की जाए।

10. ऐसे मामलों की सुनवाई के लिए हर जिले में फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाई जाएं, जहां पर ऐसे मामलों की सुनवाई रोजाना हो सके और ट्रायल 6 महीने के अंदर पूरा हो सके।

11. मॉब लिंचिंग के आरोपियों को जमानत देने, पैरोल देने या फिर रिहा करने के मामले में विचार करने से पहले कोर्ट पीड़ित परिवार की भी बात सुने, इसके लिए उनको नोटिस जारी करके बुलाया जाना चाहिए।

12. मॉब लिंचिंग के शिकार परिवार को मुफ्त कानूनी मदद दी जानी चाहिए, इसके लिए उनको लीगल सर्विस अथॉरिटी एक्ट 1987 के तहत फ्री में एडवोकेट उपलब्ध कराना चाहिेए।

13. अगर कोई अधिकारी अपनी ड्यूटी निभाने में विफल रहता है या फिर मामले में समय पर चार्जशीट फाइल नहीं करता है, तो उसके खिलाफ डिपार्टमेंटल एक्शन लिया जाना चाहिए।

इसके अलावा UP लॉ पैनल ने तो ऐसे मामलों में फांसी की सजा देने की सिफारिश तक की थी। अब आप उपरोक्त गाइडलाइंस पढ़ने के बाद तय कर लें कि लिंचिंग को लेकर सरकारें कितनी गंभीर हैं?
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पालघर लिंचिंग में मरनेवाला एक शख्स 70 साल की आयु का था। भीड़ की निर्दयता का अनुमान लगा लीजिए। भीड़ में छुपा हर हमलावर संभवतया यही सोचता है कि ऐसी हत्या का अकेला वो ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जाएगा। समूह में मिलनेवाली सज़ा भी अक्सर कम हो जाती है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने लिंचिंग में शामिल एक-एक आदमी की ज़िम्मेदारी तय करने का आदेश दिया है। UP के मुख्यमंत्री ने बेहद तेज़ गति से महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को फोन किया था, जिससे मालूम चलता है कि वो इस घटना से बेहद आहत थे। क्या उम्मीद की जा सकती है कि वो अपने सूबे में भी ऐसी किसी घटना की पुनरावृत्ति ना हो इसका इंतज़ाम सुप्रीम कोर्ट की गाइंडलाइंस को ध्यान में रखकर करेंगे? खुद महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के लिए तो ये खासकर ज़रूरी है क्योंकि वो जिस दल के मुखिया हैं वो भूतकाल में अक्सर झुंड में मारपीट करते देखा गया है। आज जब दल सत्ता में है तो उसके ऊपर अतिरिक्त ज़िम्मेदारी है।

*आदित्य ठाकरे ऐसे मामलों में उम्मीद जगाते हैं। वो युवा हैं और आधुनिक महाराष्ट्र के प्रतिनिधि हैं। उन्हें विशेष तौर पर प्रयास करना चाहिए कि झुंड बनाकर किसी की हत्या का अब कोई केस राज्य में ना हो।*

*- अफरोज़ मालिक*

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