"कर्बला की याद में उठा अलम, सीनाजनी कर बहत्तर शहीदों को अर्पित किया गया श्रद्धा-सुमन"

रिपोर्ट:

शाकिर अली, समझो भारत राष्ट्रीय समाचार पत्र
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बिड़ौली सादात, शामली (उत्तर प्रदेश)।
मोहर्रम माह की दूसरी तारीख को बिड़ौली सादात की सरज़मीन पर कर्बला के शहीदों को याद करते हुए श्रद्धा और शोक का माहौल छाया रहा। कर्बला में अंजुमन ए सज्जादिया की जानिब से अलम (ध्वज) लगाया गया, जो इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके जानिसारों की शहादत की याद में हर साल यहां स्थापित किया जाता है।

इस अवसर पर मोहम्मद हाशिम, मिन्हाल जैदी, अखलाक, मोनू, आगाज़, कुमैल, साबिर शाह सहित कई अकीदतमंदों ने नोहे पढ़कर सीनाजनी की और कर्बला के 72 शहीदों को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि दी। यह मातमी माहौल इमामे मासूम और उनके काफिले की कर्बला में दी गई कुर्बानी की गहराई को बयां करता है।


मोहर्रम: ग़म, सब्र और याद का महीना

मोहर्रम का चांद दिखाई देने के साथ ही शिया समुदाय में मजलिसों और मातमी कार्यक्रमों की शुरुआत हो जाती है। बिड़ौली सादात में भी पहली मोहर्रम से दसवीं मोहर्रम (आशूरा) तक लगातार मजलिसों का आयोजन किया जाता है।

  • 5 व 7 मोहर्रम: दिन में मातमी जुलूस निकाला जाता है।
  • 9 मोहर्रम (तसुआ की रात): रात्रि में मातमी जुलूस होता है।
  • 10 मोहर्रम (आशूरा): जंजीर का मातम कर शहीदों की याद में मातम किया जाता है।

हर गली, हर घर, हर दिल कर्बला की याद में डूबा होता है। मातमी लिबास में सजे हुए शिया समुदाय के लोग ग़म की फिज़ा में ‘या हुसैन’ की सदाएं बुलंद करते हैं। नोहे, मर्सिये और मातमी जुलूसों के ज़रिए शहीद-ए-कर्बला की याद ताज़ा की जाती है।


कर्बला: इंसाफ, कुर्बानी और इस्लाम की हिफाज़त का पैग़ाम

मोहर्रम केवल शोक का महीना नहीं है, बल्कि यह इस्लाम की बुनियाद पर दी गई सबसे बड़ी कुर्बानी की याद दिलाने वाला पवित्र समय है। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने 72 साथियों के साथ अन्याय और ज़ुल्म के खिलाफ डटकर खड़े होकर, दीन-ए-इस्लाम को हमेशा के लिए ज़िंदा कर दिया।

इमाम हुसैन की यह कुर्बानी पूरी मानवता को यह संदेश देती है कि—

"सच के रास्ते पर चलने के लिए सिर कट सकता है, लेकिन झुकाया नहीं जा सकता।"


सवा दो महीने तक सोग का सिलसिला

शिया समुदाय के लोग मोहर्रम से लेकर सफर और रबीउल अव्वल के आरंभ तक लगभग सवा दो महीने का सोग मनाते हैं। इन दिनों में न तो शादी-ब्याह जैसे शुभ कार्य होते हैं, न ही कोई हर्षोल्लास के आयोजन। घरों में ग़म की चादर बिछी रहती है और दिलों में कर्बला की तपिश महसूस की जाती है।


समाप्ति में:
बिड़ौली सादात की कर्बला में लगाया गया अलम और मातम की यह परंपरा, न सिर्फ शहीदों की याद को ज़िंदा रखती है, बल्कि आज की पीढ़ी को यह बताती है कि हक़ और इंसाफ के लिए किस हद तक जाकर संघर्ष किया जा सकता है।

यह सिलसिला केवल अकीदत का नहीं, बल्कि उस पैग़ाम का भी है जो इमाम हुसैन ने कर्बला में अपनी आखिरी सांस तक दिया — "ज़ुल्म के सामने खामोश मत रहो।"


📸 रिपोर्ट: शाकिर अली
🖋 समझो भारत राष्ट्रीय समाचार
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